Monday, October 22, 2018

अकथ
लघुकथा संग्रह – अकथ
लेखक – डॉ. कमल चौपड़ा
समीक्षक डॉ. लता अग्रवाल
प्रकाशक – अयन प्रकाशन दिल्ली
कुल लघुकथा-८० / पृष्ठ – १६७
ISBN -९७८-९३-८७६२२-०७-४
मूल्य -

वर्तमान समय लघुकथा को समर्पित दिखाई दे रहा है | कह सकते हैं लघुवाद का प्रभाव है कि साहित्य की अन्य विधाओं में आज लघुकथा को अधिक पसंद किया जा रहा है | पाठक अपनी साहित्यिक अभिरुचि को जागृत रखते हुए कम समय में साहित्य का आन्नद ले लेना चाहता है | उनकी इस मांग को पूरा करती है लघुकथा | सबसे बड़ी बात यह कि पिछले कुछ वर्षों में लघुकथा के कोष में काफी वृध्दि हुई है | कारण युवाओं ने बड़ी मात्रा में इस विधा को अपनाया है | निःसंदेह इसमें वरिष्ठजन का मार्गदर्शन बहुत महत्वपूर्ण कड़ी है |

ऐसे ही लघुकथा के एक मौन साधक हैं आ० डॉ कमल चौपड़ा जी | पेशे से चिकित्सक चौपड़ा जी के कई लघुकथा संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं | इसके साथ ही आप लम्बे अरसे से लघुकथा को समर्पित पत्रिका संरचना का सफलता पूर्वक सम्पादन कर रहे हैं | ‘अकथ्य’ आपका नवीनतम लघुकथा संग्रह है | सम्पूर्ण संग्रह की बात करूँ तो पढ़कर यही समझ पाई हूँ दंगे-फसाद में हुई घटनाओं को लेखक ने करीब से देखा है उसमें आहत लोगों की पीड़ा को आपने करीब  से महसूस किया है | क्योंकि संग्रह का केन्द्रीय विषय यही है , इसके अतिरिक्त सामाजिक परिवेश, किसानों की दुर्दशा ,स्त्रीविमर्श आदि पर भी कई लघुकथाए संग्रह में है |अगर शीर्षक की बात करूँ तो ‘अकथ’ जो कहने , वर्णन करने योग्य न हो , जाहिर है देश आज जिस मजहबी आग में झुलस रहा है उसकी पीड़ा अकथ है , इसे हम केवल अपनी सम्वेदना की आँखों से देख और महसूस कर सकते हैं | इस दृष्टि से संग्रह अपने शीर्षक को सार्थकता प्रदान करता है |

आज हमारा पारिवारिक तंत्र डगमगाया हुआ है। कहीं आजीविका हेतु सात समंदर पार होने से माता-पिता के प्रति दूरी समझ आती है। मगर एक ही छत के नीचे विमुख सन्तान त्रासद है, वहीं हमारे परिवारों में स्त्रियों के व्यवहार को लेकर भी चिंतन है कि अपने माता पिता के दुख दर्द की उन्हें बहुत चिंता है मगर पति के माता पिता उन्हें एक आंख नहीं भाते यह कैसा दोगला पन...? फिर हम बात करते हैं वैश्वीकरण की सारी दुनिया को मोबाइल में समेटे बैठे हैं। सात समंदर पार रिश्तों में नजदीकियां होने का दम्भ भरते हैं मगर खून के रिश्ते इन खोखले एहसासों तले दबे-कुचले घुट रहे हैं इसकी हमें खबर नहीं तो हमारा सम्पूर्ण ज्ञान खोखला है। कहानी 'इतनी दूर' ऐसे हो खोखले रिश्तों की कथा है जहाँ  अकेले बूढ़े पिता दम तोड़ देते हैं मगर बेटे को खबर उनकी कामवाली /पड़ौसी से मिलती है। सात समंदर पार बैठी बेटी को चिंता होती है फोन न उठाने पर मगर वहीं उसी छत तले बेटों को दो दिनों से पिता को न देख पाने पर कोई सवाल नहीं उठता। कहानी का अंत बेहद मर्म स्पर्शी है ," उनकी खुली हुई आंखें दरवाजे की ओर ताक रही थीं जैसे किसी का इंतजार कर रही थी।" कहना चाहूँगी पिछले दिनों ऐसी घटना मुंबई में घटित भी हुई । अर्थात कथा यथार्थ के बहुत निकट है |
कहना न होगा कि  बाजारी दुनिया में रिश्ते भी टकसाली हो गये हैं , बच्चे माता-पिता को नौकरों का सब्टीटयूट के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं तो क्या आश्चर्य यदि माता-पिता अपनी आवाज ऊंची करें | भौतिक युग में बच्चों द्वारा  माता-पिता की उपेक्षा का प्रमाण है देती कथाएं हैं , ’ब्रेन स्ट्रोक’  ‘बस इतना’  ‘बच्चों के लिए’ “सिर्फ लकवा ही हुआ है ... तो उसका इलाज तो बाद में भी होता रहेगा |” जिन माता पिता ने अपना सुख चैन गवाया आपके लिए उनके प्रति इतनी लापरवाही ...? दूसरी और ‘रोग और रिश्ते’ जैसी कथा भी है जो माँ बेटे के अटूट सम्बन्ध की बहुत प्यारी कथा है माँ को संक्रमण रोग लगने पर पिता भी जब उसका साथ छोड़ जाता है , तब बेटे की भलाई के लिए माँ भी उसे अपने से दूर रहने की सलाह देती है | ममता की अतल गहराई बेटा समझता है बड़ी बात है |
देश की बड़ी समस्या से रूबरू कराती कथा 'मंडी में रामदीन' आज हमारे अन्नदाता जो रातदिन खेतों में पसीना बहा अन्न उपजाते हैं मगर स्वयम अन्न के अभाव में आत्महत्या कर रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो सोचिये अगर ये खेतिहर खेतों को बेचकर कंक्रीट के जंगल तैयार करने लगे तो हमारे पेट का क्या होगा ? मंडियों में भी उनका शोषण , ऐसे कई रामदीन आज पीड़ित हैं उनकी व्यथा का सम्वेदस्वर सर्वत्र गूंज रहा है, " मैंने माल बेचा कहाँ है...?मेरा माल तो यहाँ लूट लिया गया है।" आज किसान बनाम दीन - हीन- लाचार ‘ख़ुदकुशी’ करने वाला  उसकी छवि देश के सबसे नक्कारा इन्सान के रूप में होती है | “कर्जों में डूबा किसान करे भी तो क्या?” ‘ख़ुदकुशी’ यह धारणा बन गई जिससे कोई उन्हें कर्ज देने को भी तैयार नहीं | “कल तूने भी ख़ुदकुशी कर ली तो तेरे बाद किसको पकड़ेंगे? किसकी माँ को मासी कहेंगे ? मेरे पैसे तो गये न चिता में “ किसी को उनसे सहानुभूति |
‘काटे कोई और’ किसानों की बड़ी समस्या को उभरती कथा है , अन्नदाता जो रात दिन खेतों में जुतकर अभावग्रस्त हैं , मन्नू का सवाल सम्पूर्ण अन्नदाताओं की और से “बापू लोग तो कहते हैं जो बोटा है वाही काटता है , लेकिन बोटा मजदूर है और काटकर खाता है लाला | बापू एसा क्यों नहीं होता , जो बोये वही काटे वही खाए |” वह दिन कब आएगा ..?आज हर कृषक इस इंतजार में हैं | सतत शोषण का शिकार होते इस वर्ग ने अब स्वय को साधना सीख लिया है , अपने पसीने का मोल पहचान लिया , वे जान गये हैं हमेशा ‘हां’ कहने से इनका उध्दार नहीं होगा बहुत जरुरी है ‘नहीं’ कहना अन्यथा लोग आपका शोषण करते रहेंगे | “नहीं मालिक , मैं नहीं जाऊँगा |”
समाज का अभावग्रस्त वर्ग जिसके लिए मिठाई भी एक दिवास्वप्न सी है , वहीँ दूसरा वर्ग जो थाली में उतनी मिठाई जूठन के रूप में छोड़ देता है | ‘सहते-सहते’ वह वर्ग उन स्थितियों का आदी हो गया है यही होता है कथा के नायक के साथ , वहीँ कथा की नायिका भी पति के व्यवहार को पढ़ते -पढ़ते  उसकी अभ्यस्त हो गई है | इसी स्वभाव की एक और कथा है , ‘हमें क्यों नहीं’ बाल मनोविज्ञान पर आधारित कथा है , नंदू समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को मरते देख रहे हैं , और जब उसे कोई काम मिलता है तो अपनी पहली तनखा से बर्फी और जलेबी की बरसों से अतृप्त इच्छा को तृप्त करता है | “क्या जुर्म किया मैंने ? अपनी मेहनत के कमाए पैसों से मिठाई ले आया तो..”
धर्म को अपनी जिन्दगी और सुविधाओं के लिए इस्तेमाल करने वालों की कमी नहीं है ’अनर्थ’ के तिवारी जी ऐसे ही वर्ग को पोल खोलते हैं , रात-दिन धर्म का डंडा लिए फिरते तिवारी जी , धर्म के प्रतीक तावीज को उछाल देते हैं नाली में , क्योंकि यहाँ धर्म उनकी जिन्दगी के आड़े आ रहा था |’ ‘आपकी बारी’ दंगे फसाद में आहत, मृत परिवारों के साथ मुआवजे की राजनीति है | कितनी सिम्त गई हैं हमारी सम्वेदनाएँ |
‘उल्टा आप’ , ‘छिपे हुए’ , ‘मजहब’ घर्म के नाम पर उठ रही लपटों में जल रही मानवता  का उदाहरण प्रस्तुत करती कथा है | हिन्दू मास्टर जी की शरण पाकर कृतज्ञ शाजिया जब अपने मास्टर के विरुध्द अपने समाज को खड़ा देखती है तो धिक्कारती है उन्हें, “काफ़िर नहीं हैं मास्टरजी , वे सच्चे इन्सान हैं , बेटी की तरह रखा है मुझे |” दंगे के बाद की स्थिति , मुआवजे की जद्दोजहद में बनते रिश्तों को दर्शाती है | वैसे ही यह मजहबी दूरियां हमने ही बनाई हैं , बच्चों के मन में यह भेद  कहीं नहीं है , दंगे के दौरान स्कूल से लौटती निधि के आगे सहारे के कई हाथ आये मगर उसने चुना शेफू चाचा को , बच्ची जानती और मानती है उसके शेफू चाचा न हिन्दू , न मुसलमान हैं बल्कि वो नेक इन्सान हैं जो उसे हमेशा सुरक्षित घर पहुँचाते रहे हैं |”ये मुसलमान थोड़े ही न हैं | ये तो मेरे शेफू चाचा हैं |” , ‘बताया गया रास्ता’  अब अल्ला , अकबर, राम सब ‘दहशत का नाम’ ‘राम का नाम’ फसाद का रूप हो गये हैं क्योंकि ये इन्सान की कितनी सहायता करते पता नहीं मगर दंगे जरुर करते हैं | इसी भय से ग्रस्त है शाबू |‘दीन धर्म ‘ जाति धर्म से परे आत्मीयता का सम्बन्ध है , बच्चे का भोलापन है दूसरी और शकील अहमद जैसे लोग जिनकी वजह से दुनिया में अच्छाई, भरोसा कायम है |
धर्माडंबर के नाम पर ,निर्दोष लोगों का कत्ल कर, उसे ईश्वर की मर्जी का नाम देना कुछ लोगों का शौक बन गया है, ‘मारा किसने’ ऐसे ही मतलब परस्त लोगों द्वारा धर्म के विध्वंस रूप की झांकी प्रस्तुत करती है , निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर उसे भगवान का शत्रु मान , कर्मों की सजा का नाम देना कितना न्याय संगत है इसका जवाब एक बच्चा देता है “इसे भगवान ने नहीं आपने मारा है लोहे की छड से पीटकर |”  मृत व्यक्ति का एक प्रश्न तो अव्यक्त ही रह जाता है कि मन्दिर में हुए दंगे में उसकी निरीह पत्नी और बच्चे को जो लोगों ने मारा तबभगवान कहाँ था ...? ‘धर्म’, ‘एक’  ‘मजहब’, ‘रास्ते’ समकालीन विसंगतियों को दर्शाती हैं, बिन किसी आधार के धर्म के नाम पर अपनी रोटी सकते लोगों की कुटिलता को दर्शाती है |
वहीं ‘धर्म के अनुसार’  सकारात्मक सोच की  कथा मुझे बेहद अच्छी कथा लगी , दंगे में जख्मी दो धर्मों के लोग है राजीव घायल मुस्लिम को पीठ पर लादकर उसकी जान बचाना | पूछने पर उसका जवाब लाजवाब होता है ,”किसी का धर्म देखकर उसकी जान बचाओ ऐसा कहाँ लिखा है ....ये पड़ा-पड़ा मर जाता तो हमारे धर्म के खाते में एक खून  का धब्बा और बढ़ जाता | धर्म के नाम पर दंगा , संगठनों के नाम पर रोटियां सेंकना ही बड़ा धर्म है वास्तव में सब ‘बिकाऊ’ हैं दंगे फसाद से रची कथाओं के बीच एक कथा है ‘हारना नहीं’  एक उम्मीद है की सम्वेदना मरी नहीं है और जब तक सम्वेदना जीवित रहेंगी,सम्भावना बनी रहेगी |
जाति भेद को लेकर ही एक और कथा है ‘जात’ बालमन जो जात - पात से परे  है जमादारनी के हाथ से लड्डू का लेना , और बच्चे की मासूमियत देख जमादारनी का इंकार न कर पाना ,वह भी एक ब्राहमण के बेटे का , जाहिर है हंगामा होना , “साली ! ब्राह्मण के बच्चे को लड्डू खिलाकर भ्रष्ट करना चाहती है ? साली मादर...” मन के भरम हैं जो हमने पाल रखे हैं , सम्भवत: इसी का खामियाजा है जो हमारी पीढ़ी को आरक्षण के रूप में सहना पड रहा है |
आतंकी माहौल में ठंडी फुहार सी कथा है 'फुहार' जातिवाद की आग में झुलसे दो वर्ग के बीच सम्बन्धों की मजबूत कड़ी बनता है शाबू ,"सॉरी... ताऊजी सॉरी -सॉरी " वहीं बड़ों के नाम पर राजनीति की आड़ लेकर देश के सामाजिक परिवेश को मैला करने वाले कुटिल लोगों के लिए सबक है। हमने अपने भीतर के बच्चे को मार दिया है जो शांति चाहता है, जिसमें द्वेष नहीं होता , उनकी दृष्टि सिर्फ प्रेम देखना, पढ़ना और सुनना चाहती है। ऐसी ही बालमन को उद्घाटित करती कथा है ,'शांति शांति ' इसी शांति का प्रतीक हैं सफेद कबूतर अहिंसा की आग में जलता उनका उजलापन बच्चों को खलता है और वे उसके बचाव में आगे आते हैं जो ‘गहरा विश्वास’ हरिराम और हाफ़िज़ भाई के बीच है वहीँ से हमारे देश की बुनियाद मजबूत होती है , मजहबी आतंकियों के मुंह पर तमाचा देती कथा , “हमारी इज्जत सांझी है ...सुख-दुःख सांझे हैं फिर भी ...? मेरे होते तुम चिंता मत करना ...तुम्हारी बेटी , मेरी बेटी |”
विवाह हमारी सामाजिक व्यवस्था रही है जो आज 'लिव इन' के प्रभाव में उपेक्षित हो रही है किंतु कितनी सार्थक है, कथा लिव इन में उभरकर बोलती है | परस्पर विश्वास का अभाव आखिर इसे मजबूत नहीं बना पा रहा है | दूसरी ओर बाजारवाद की भीड़ में पारिवारिक सुख को नजर अंदाज करती युवा पीढ़ी जो कैरियर के शीर्ष पर पहुँचने के लिए विवाह के बाद बच्चों के दायित्व से मुक्त रहना चाहते हैं , किन्तु क्या शीर्ष पर पहुंचकर वे वाकई संतुष्ट होते हैं ...? जवाब है कथा ‘प्लान’ की नायिका श्रेया, पति राहुल ने जब कहा  “अब हमें ये सर्विस-वर्विस छोड़कर अपनी कम्पनी खोलने के प्लान पर काम शुरू कर देना चाहिए |” श्रेया ने गर्भनिरोधक गोलियां डस्टबिन में फैंकते हुए बोली, “अब बच्चे के सिवाय कोई प्लान नहीं |”
अभी समाज से लिंग भेद का नशा पूरी तरह उतरा नहीं है | बेटी की अपेक्षा बेटे को अधिक प्रधानता देना , अपने मोक्ष का ग्रीन कार्ड समझना यह सब आडम्बर का हिस्सा है |‘सर ऊँचा’ के बाबूजी का बेटा जब जुएँ की लत का शिकार हो परिवार की इज्जत दाव पर लगा देता है ऐसे में बेटी सुमन सरीन की बैसाखी ही बाबूजी के बुढ़ापे का सहारा बनती है | “छोटेलाल पहले इन सर जी का सामान पैक कर दे | जानता है जो मजिस्ट्रेट सुमन सरीन जी हैं न ? ये उनके फादर साहब हैं |” लिंग भेद पर हमारे दृष्टिकोण पर कटाक्ष करती कथा ‘अपना खून’ "वैल्यू " बच्चे के माध्यम से एक मासूम सा किन्तु गम्भीर सवाल उठाया गया है । भैंस के कटडा होने पर बच्चे की खुशी इसलिए है कि पिछले दिनों घर में बेटी होने पर अफ़सोस देखा था घर वालों में । "चाचा ! इंसानां में छोरियों की वैल्यू क्यों न है ?" जिसका जवाब आज सम्पूर्ण नारी समाज मांग रहा है।
मरती हुई संवेदना को बयाँ करती कथा ‘शहर में अफ़सोस’ सड़क पर हुए हादसों से लोग अनजान बन निकल जाते हैं , ये नहीं सोचते कहीं ये कोई अपना न हो , या किसी को उनके मदद की आवश्यकता तो नहीं ...? वहीँ मरनोपरांत पोस्टमार्टम के लिए भी रिश्वत ...! धिक्कार है ऐसे इंसानों पर जो मृत देह से भी पैसा कमाने से परहेज नहीं करते |
वहीँ आतंकी पहलूओं को भी आ०  चौपड़ा साहब ने छुआ है |‘अपरहण’ देश में फैले गुंडा तत्वों से परेशान हाल जनता की व्यथा है  “पूरे पैसे लेकर भी बापू सही-सलामत लौट आये तो गनीमत | वहीँ युवा पीढ़ी को निष्क्रिय करने हेतु सक्रिय गिरोह एवं सुरक्षा विभाग की साठ -गाँठ कह लीजिये या अनदेखी जो युवा शक्तियों को नशे का शिकार बना रही है देश के लिए यह चिन्तन का विषय है | नशे की लत नन्दू का जीवन लील गई उसके ‘कत्ल में शामिल’ में हैं हमारी व्यवस्था, सुरक्षा विभाग , और ड्रग्स को लेकर फैला वह माफिया जिन्हें सिर्फ पैसा दिखाई देता है युवाओं की जिन्दगी नहीं , उनके लाचार पिताओं की टूटन नहीं , व्यवस्था का प्रतिकार करती कथा है |
आज’ की सबसे बड़ी समस्या है बेरोजगारी , युवा वर्ग की प्रतिभाओं की अनदेखी ने उनके भीतर एक आक्रोश भर दिया है , बड़ा प्रश्न है, “हम क्या कर रहे हैं ? सत्ता, सेठ और सिपाहियों के हाथ मजबूत कर रहे हैं बस्स |” समाज को चिन्तन की आँख देती कथा है |
स्त्री विमर्श पर कई लघुकथाएं बहुत उम्दा बन पड़ी है | कहते है एक लड़की का जब बलात्कार होता है उससे कई गुना अधिक पीड़ा होती है जब समाज द्वारा उसे बार -बार अहसास कराया जाता है कि वह हादसे की शिकार है, विडम्बना तो यह है कि माता-पिता भी उससे दूरी बनाते हैं 'चंगुल ' देश की ऐसी कई लड़कियों की कथा है जो सवाल उठाती है कि ऐसे हादसों में आखिर मैली लड़की ही क्यों होती है..? घर और समाज के दरवाजे उसके लिए बन्द क्यों हो जाते हैं ...? वेश्या बनने के लिए उसके सामने चौराहे हैं मगर एक पत्नी, बेटी बनने के लिए कोई राह नहीं ...? एक बड़े बदलाव की ओर इंगित करती कथा है।
इसका जवाब उनकी ही अगली कथा ‘इस जमाने में’ देती है , अपनी बेटी के साथ हुए हादसों को अक्सर समाज में बदनामी के भय से माता-पिता छिपा लेते हैं , जब  ‘इस जमाने में’ की नायिका विरोध दर्ज करती है तो घर में सभी इज्जत की दुहाई देते हैं  साक्षी का प्रश्न आज कई लडकियों की आवाज बन उभरा है , “तो क्या मैं चुपचाप अपनी इज्जत लुटावा लेती?”
 ‘कैद बा- मशक्कत” पढ़ी लिखी पत्नी कभी संस्कारों के नाम पर तो कभी अपनी आजीविका के भय से पति की प्रताड़ना सहती है | वहीँ घर की महरी उस इन्सान को जब लताडती है तब प्रश्न हमारी शिक्षा , संस्कार पर तो उठता ही है साथ ही नारी की आर्थिक आत्मनिर्भरता भी इसके मूल में  दिखाई देती है | ”घर की बहू नहीं हूँ , जो थप्पड़ लात खा के भी पड़ी रहूंगी ,” स्त्री विमर्श की एक और कथा है ‘दुःख जोड़ेंगे’ सुख की अपेक्षा दुःख का रिश्ता गहरा होता है | पंडिताइन और जमादारनी का धर्म अलग है किन्तु उनका दुखा एक है घर के युवाओं से उपेक्षा , वृध्दावस्था का अकेलापन  तभी तो जमादारनी की आँखों में आये आंसू देख पंडिताइन कह उठाती है , “मत रो बहन |”
नारी उत्पीडन की कथा है ‘ख्याल रखना’  कैसी विडम्बना है घर भर के दुःख को अपने आंचल में समेटने वाली नारी को उसकी पीड़ा में न केवल तन्हा छोड़ देते हैं बल्कि उसके जीते जी उसका पत्नीत्व भी छीन लिया जाता है | उसके बाद भी उसकी ममता उस घर की देहलीज से बंधी रहती है , “सूनो ! मेरे बाद अपना भी ख्याल रखना ......और वो दूसरी का |”
घर में अपनों के आतंक के साये में जीते हुए अब नारी की क्षमता और चेतना में विकास हुआ है |  ‘इससे ज्यादा क्या?’ कथा एक सशक्त नारी की छवि को उजागर करती है | “पराये घर में पराई चीज शोभा नहीं देती” स्त्री विमर्श की कथा घर में असुरक्षित वातावरण ने उसे सबल बनने की प्रेरणा दी|  “कभी कोई गुंडा आ भी गया तो उसके पति से ज्यादा गुंडई क्या कर लेगा ?”
‘मिनी को सजा’ , ‘खौंफ’ तार - तार होते रिश्तों की पीड़ा को दर्शाती कथा है ‘बेटी’ शब्द से आतंकित है बच्ची , कारण बेटी के नाम पर अपनी साथी के साथ छल होते देखा है उसने इसलिए आज अपने पिता द्वारा बेटी कहे जाने पर भी सहम जाती है | इन कुदृष्टियों से बचने के लिये घर की चार दीवारी में कैद बच्चियों में बगावत के स्वर उठ रहे हैं , “बाहर गुंडे घूम रहे हैं तो मैं क्या करूं? मेरा क्या कुसूर हैं ? मुझे क्यों सजा दे रहे हो ?”
दो वर्गों के बीच सदियों से चली आ रही लड़ाई , लड़ाई विचारधारा की , स्वार्थ की , अपने सुख को सर्वोपरि रखने की | एक वर्ग जो सदैव जीतते आया है  उसे आदत हो गई है , हार बर्दाश्त नहीं है , दौलत के बल सब कुछ हासिल कर लेने का दम्भ उन्हें जब आहत करता है वह भी काम वाली के बेटे से अपने बेटे का सुख नहीं खरीद पाती ,”मैं तुझे कह रही हूँ , अपने बच्चे से गुड़िया छीनकर दे दे | तुझे और पैसा चाहिए तो ले ले ...सुना कि नहीं ?” मगर न अभाव में पलता वह बच्चा अच्छी गुडिया के बदले अपनी गुड़िया उसे देता है न ही वह काम वाली माँ दौलत के बोझ तले अपने बच्चे की ख़ुशी दबने नहीं देती | दौलत आहत होकर रह जाती है | परीक्षा के दौरान बच्चों में उमड़ती आस्था को परिभाषित करती कथा है ‘भगवान  का घर’  बच्चों का मनोविज्ञान, जो केवल भ्रम है उसका मगर आत्मविश्वास बढ़ाता है  |इसके लिए मन्दिरों में बच्चे अपने रोल नम्बर  भी लिखते देखे गये हैं | यह शिक्षा की वैज्ञानिकता भी प्रश्न उठाता है | क्या शिक्षा वह आत्मविश्वास नहीं दे पा रही बच्चों को ...?
अविश्वास’ पुलिस के वहशी रवैय्ये और पति-पत्नी के बीच कमजोर  विश्वास को दर्शाता है ‘ऊँचा पद’  दो महिलाओं की कथा है एक जो शीर्ष पर अकेली खड़ी है दूसरी जो शीर्ष पर अपने परिवार के साथ हैं , कौन सुखी है ...? समाज मूल्यांकन करे, ‘कुएं में छलांग’ मोटिवेशनल कथा है जो अवसाद के क्षणों में प्रेरणा देती है  ‘माता’ शहीदों की क़ुरबानी उनके परिवार के दुखों की कब्र पर काबिज है सत्ता | ‘शरण’ विश्वास का अनुबंध है आत्मा का अंतर्नाद है जो मानव की मानवता को जिन्दा रखता है | ममत्व’ ‘आप खुद’ बच्चों के साथ सामंजस्य को दर्शाती है | चमक’ मासूम बच्चों में सम्वेदना जीवित है यही रौशनी की किरण है की भारत का भविष्य अभी सुरक्षित है | “अंकल! अंकल! मैंने भी एत तीडे को तिनके पर बिठा कर बाहर निकला | मर जाता तो बेचारे के मम्मी-पापा कितना लोते ?”

आ० कमल चौपडा जी का यह संग्रह एक जिम्मेदार साहित्कार के दायित्व को साकार करता है जिसमें व्यक्ति के साथ समाज व देश का समूल चिन्तन समाया है | भाषा सहज और भाव के अनुकूल हो , कहीं – कहीं आंचलिक भाषा का प्रयोग मसालेदार तड़के का काम करता है |कथाओं में अवश्य  साहित्य की विभिन्न विधाओं में आपका लेखन जितना गंभीर है लघुकथा के क्षेत्र में भी आपका चिन्तन उतना ही प्रखर दिखाई देता है | अकथ समकालीन लघुकथा के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती है | आगे भी आप ऐसे ही अकथ विषयों से पाठकों को रूबरू कराते रहेंगे तथा हमें आपके साहित्य का सतत लाभ मिलता रहेगा |
सादर
डॉ लता अग्रवाल
७३ यश विला , भवानी धाम फेस-१
नरेला शंकरी
भोपाल-४६२०४१
मो- ९९२६४८१८७८





Monday, June 11, 2018

पुस्तक समीक्षा
 बैसाखियों के पैर 
पुस्तक समीक्षा : बैसाखियों के पैर 
लेखक : भगीरथ परिहार 
प्रकाशक : एडूक्रियेशन पब्लिशिंग, दिल्ली 
मूल्य : 280/-

44 साल की परम्परा है बैसाखियों के पैर : कान्ता रॉय 

1974 ई. में 'गुफाओं से मैदान की ओर' से एक बात निकली थी जमाने के लिए, जिसने बातों के कई पर्वत श्रृँखलाएँ गढ़ते हुए परिवर्तनकारी सामाजिक सुधार के उद्देश्य से कह डाला कि 'पेट सबके हैं।' इस तरह कह डालना इतना आसान भी नहीं रहा था, फिर भी आलोचनाओं के विशाल समंदर में एक सिद्धहस्त तैराक की तरह अगाध जलराशि को पार कर, विजेता बन, इस उम्र में भी निरंतरता को बनाए रख लघुकथाकार भगीरथ परिहार ने फिर से गढ़ दिए हैं 'बैसाखियों के पैर', जिसके प्रभाव से अपने इस नवीनीकरण को देखकर कई बैसाखी जो पुरातन ढर्रे पर टिकने की कोशिश में थे आज एकाएक चरमरा उठे हैं। 
बैसाखी स्वयं में अर्थहीन ही नहीं बल्कि मोहताज भी हुआ करती है फिर भी लाचारगी को संबल चाहिए इसलिए आज उसकी भी कीमत है। आदमी की लाचारी से बैसाखी का कद, इसकी कीमत बढ़ती है, इसलिए बैसाखियां दुआ माँगती है आदमी के अपाहिज होने का।
बैसाखी की प्रवृत्ति 'आदमखोर' भी होता है, वह आदमी को सहारा देने के नाम पर उसकी कर्मठता को ठगती हुई मानसिक रूप से अपाहिज बनाने लगती है, क्योंकि आदमी की लाचारी में ही 'बैसाखियों के पैर' गतिशील हुआ करते हैं।
वह अपनी टांगों सहारे नहीं चलता था, क्योंकि उसकी महत्वाकाक्षाएँ ऊँची थी क्योंकि वह चढ़ाइयॉं बड़ी तेजी में चढ़ना चाहता था, क्योंकि उसे अपनी टांगों पर भरोसा नहीं था क्योंकि वे मरियल और गठिया से पीड़ित थी।“----- यहाँ व्यंग्य शैली में बात को कहने की अलग ही तस्वीर नजर आती है। फिर दूसरी पंक्ति में चाटुकारिता को परिभाषित करने का जो अंदाज यहाँ देखने को मिला वो अद्वितीय है कि
फिर भी, जिन दूसरी टांगों के सहारे चलता था, उन पर टरपेन्टाइन तेल की मालिश किया करता था। हाथ की मॉंसपेशियाँ खेता नाई की तरह मजबूत हो गई थी और शाम उनके टखने एवं ऊँगलियॉं चटखाया करती थीं ताकि विश्वास हो जाये कि कल भी ये टांगे उसका साथ देंगी।“--------'बैसाखियों के पैर' प्रतीकात्मक रूप में कही गई एक सशक्त लघुकथा है। हाथ की माँसपेशियों का खेता नाई की तरह मजबूत हो जाना, बैसाखियों के आदतन लोगों के स्वभाव और आचरण में लिजलिजेपन को अभिव्यक्त करती है।
लघुकथा इस एक कथ्य को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पुस्तक में निहित भाव का संवहन करने में  सफल  है।

इसमें जरा भी दो राय नहीं है मानने में कि भगीरथ परिहार  की पुस्तक पढ़ना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है। लघुकथा साहित्य के अध्ययन संबध में ये कहा जा सकता है कि इनको नहीं पढ़ा तो आपने कुछ भी नहीं पढ़ा। 
भगीरथ परिहार की सभी लघुकथाएं धैर्य से लिखी गयी प्रतीत होती है। संग्रह की लघुकथाओं में नैसर्गिक आरोह-अवरोह गतिमान है। लेखन मौलिकता लिए नव-निर्माण करती नजर आती है। पुस्तक की पहली लघुकथा 'आदमखोर' की पहली पंक्ति स्त्री-विमर्श से शुरू तो होती है लेकिन नरभक्षियों के प्रादुर्भाव के साथ ही राजपुरूष के प्रेम को माधुर्यता से अभिव्यक्त करने में कामयाब हो जाती है। यहाँ प्रेम को अलहदा तरीके से सम्प्रेषित किया गया है जो लघुकथा को श्रेष्ठ बनाता है। समाज, परिवार से ठुकरायी गयी स्त्री को जब भी कोई राजपुरूष प्रेम के वश में उसकी ओर बढ़ेगा, स्त्री को उसकी छाती से चिपकने से कोई भेड़िया रोक नहीं सकता है।
'आदमी की मौत' लघुकथा की संरचना ढोलनुमा पेट, दाढ़ी सूखी जंगली घास, काला स्याह शरीर, बाहर झांकते पीले मैल जमे दाँत के सहारे की गई है। आदमी को आखिर में मरना ही पड़ा। प्रतीकों के सहारे यहाँ गजब की बुनावट दिखाई देती है।

'अपराध' में एक अलहदा रंग उभरकर सामने आया है। किशोरावस्था और यौनिक जिज्ञासा कथ्य के केंद्र में है। बाकी सब बातों पर तो छूट दी भी जा सकती है लेकिन किशोरावस्था में प्रेम करना! यह तो अपराधी करार देने का पक्का कारण है।
'असीम आकाश' पाने के नाम पर महत्वाकांक्षी भ्रामक स्वप्न बोध से उबरने को सचेत भी करती है लघुकथाएं।
'अतिथि' आईना है संयुक्त परिवार के विघटन का। परायेपन के एहसास से गुजरती हुई स्त्री अनजाने में ही सही रचती जाती है पराएपन की जमीन। बोती है बीज निज सुख की और उगाती है फसल अतिथ्य के रूप में निज सम्बन्धों में स्वार्थ की प्रतिफल।
'बलिदान' में पुत्र का माँ के सुख के लिए स्वंय का बलिदान, 'बुद्ध की आँखें' चैतन्य होने का बोध देती है तो वहीं 'बन्दी जीवन' स्त्री पुरुष सम्बन्धों में प्रेम और कर्तव्य के समीकरण में उलझने को बेबस पति पत्नी के मन की छटपटाहट को बुनती है। फेसबुकलघुकथा के जरिये स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ को उद्दत बेशर्म पुरुष प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। इस लघुकथा को पढ़ते हुए मन सोचने पर मजबूर हुआ कि पढ़े लिखों का हमारा समाज कितना शिक्षित है? मेसेंजर में स्त्री संग एकांत पाने की लालसा, वाकई में छिछोरे सिर्फ नुक्कड़ों पर ही नहीं पाए जाते है बल्कि यहाँ हर इनबॉक्स की खिड़की से झांकते ये पाए जाते हैं। इन बातों पर खुलकर चर्चा करने की जरुरत है ताकि बदनीयती पर अंकुश लग सके। भगीरथ परिहार की दृष्टि अभी युवा है, इन्हीं क्षण विशेषों से इंगित होती है।  
'भाग शिल्पा भाग' भ्रूण हत्या को लेकर एक जबरदस्त लघुकथा है। यहाँ अभिव्यक्ति की शक्ति को एक आश्चर्यजनक प्रवाह देखने को मिलता है। 
'चम्पा' मैला ढोने के विरोध में दलित-विमर्श को हवा देती अच्छी लघुकथा है। चेहरा, छिपकली, चीखें, चुनौती, ये सबके सब लघुकथाएँ कथ्य को व्याकुलता से अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। 
पुत्रियाँ इतनी जल्दी युवा क्यों हो जाती हैं! युवा होकर सपने क्यों देखती है! सपने भी इन्द्रधनुषी! सपनों में वे हिरनियों - सी कूदती - फांदती, किलोल करती, मदन - मस्त विचरण करती है। हिरनी जैसी आँखों को देखकर सपनों का राजकुमार पीछा करता है। वह रोमांचित हो उठती है। अंग - प्रत्यंग मस्ती में चूर। इस उमर में इतनी मस्ती आती कहाँ से है!” ----- ‘सपने नहीं दे सकतालघुकथा की ये शुरुआत की पंक्तियों से जो अंतर्द्वंद वेदना का शूल बनकर छाती में उतरती है और अंत तक आते आते कलेजे के पार निकल जाता है, ह्रदय को रक्त-रंजित कर जाती है।
बेटी, सपना देख, लेकिन सपने में राजकुमार को मत देख।“----कहती हुई पंक्ति जब आत्महीन, टूटी हुई स्त्री को पुनश्च नव चेतना को ये कहकर जगाती हुई सपने देखने के लिए कहती है कि, “...लेकिन सपने देखने वाले ही सामाजिक यथार्थ को बदलते है। नहीं, तू देख सपने और मुस्तैदी से देख,कि तू औरत की नियति बदल सके।“---और यहाँ कथ्य का ऐसा उठान हुआ कि कथा अपने आप हठात एक समर्थ लघुकथा बन जाती है।
भगीरथ परिहार ने लघुकथा में एक लम्बे संघर्ष को जिया है। उन्होंने  लघुकथा साहित्य को विकसित कराने में अपनी सशक्त भूमिका निभाई है। लघुकथा में रचे बसे हुए लेखक हैं, इसलिए जब मैं फड़फड़ाहटलघुकथा से गुजर रही थी तो ऐसा लगा कि मानों यह अभिव्यक्ति मात्र है, इसमें कथातत्व कहाँ है? मन के उथल-पुथल को पकड़ अपनी व्यग्र भावों का सम्प्रेषण ही तो है। फिर सोचा कि हो सकता है मेरी नजर वहां न पहुंची हो। कभी अवसर मिला तो आपसे मिलकर इस बिंदु पर, आपका दृष्टिकोण जरूर चाहूंगी।

पुस्तक में निहित सतहत्तर श्रेष्ठ लघुकथाएं मन के अंदर उठती कोलाहल का स्वर है। प्रतीकों व बिंबों का प्रयोग मनःस्थिति को लेकर अपने प्रयोजन में सफल है। तर्क का अनुशासन प्रत्येक लघुकथा में परिलक्षित होता है।
लघुकथा संग्रह का एक आकर्षण परिशिष्टभी है। यह  'बैसाखियों के पैर' को एक अलग श्रेणी में रखता है जिसमें आधुनिक लघुकथा की अवधारणा विस्तार से आलेखित है। लघुकथा के शिल्प पर चर्चा-विमर्श के तहत जगदीश कश्यप एवं विक्रम सोनी को पूछे गए प्रश्नों के उत्तर प्रश्नोत्तरी स्वरुप रखा गया है। जब विधा सम्मत तकनीकी प्रसंग पुस्तक का हिस्सा बनता है तब लेखक और पाठक दोनों की दृष्टि से उस पुस्तक की महत्ता बढ़ जाती है। मुझे इस पुस्तक की लगभग सभी लघुकथाएं पसंद आयी है।
 लघुकथाकार की चिंतनशीलता लघुकथा संग्रह के सार्थकता के मिशन को पूरा करती है, ऐसा मेरा निजी मत है। मनुष्य के चैतन्यता और उसके आवरण को अभिव्यक्त करने का आधारभूमि है यह लघुकथा संग्रह।


कान्ता राय
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