Monday, September 15, 2008

आंधी


चित्रेश

ठाकुर रघुराज सिंह को रमेसरा का रग-ढ़ंग जरा भी न सुहाता था । ऐसा भी क्या हलवाहा कि बस काम से काम । बात - व्यवहार की दमड़ी भर अकल नहीं । ठाकुर अपनी तरफ़ से खेती- बाड़ी की चर्चा छेड़ते तो भी उस चढ़ती उम्र के लौंडे के चेहरे का भकुआपन न दरकता, जबकि रघुराज सिंह इस मौके पर उसके मुँहासों भरे गहरे सावँले चेहरे पर पालतूपन की तरलता देखने का प्रयास करते थे । वे अपना मन समझाने के लिए अक्सर सोचते - अभी जल्दी ही बाप मरा है। गम भूलते ही रास्ते पर आ जायेगा।
मगर रमेसरा ठहरा पक्का बागी। उस दिल हल बैल खूँटे से लगा वह पनपियाव की तैयारी कर रहा था कि सामने से रघुराज सिंह आ गए। उसने कौढ़ भर की डली दिखाते हुए उजब किया, "बाबू साहेब!ठ्कुराइन भखरी के अन्दर से इतना- सा गुड़ भेजकर बगदा देती है। इससे मुँह भी नहीं मिठाता।"
ठाकुर अवाक् ! ऐसी बात कभी नहीं उठी थी। खुद इसका बाप जगेसरा बीस बरस इसी देहरी की गुलामी करके चुपचाप मर गया, लेकिन ये कल का छोकरा कैसी आँखें तरेरे ताक रहा है। लिहाज का नाम - निशान नहीं। मन की कड़वाहट चेहरे की इक्का- दुक्का झुर्रियों को गहराती त्योरियाँ तान गई। इच्छा हुई आज कर ही दे मनहूस का पनहिया सराध! पर जमाने की हवा जरा- सी बात मसले में बदल सकती थी।
अब दीन - ईमान तो रहा नहीं,बस दूसरे को हड़प जाने की नीयत बाँधते बैठे हैं। तिस पर रमेसरा ठहरा अकेला, न बीवी , न बच्चे, माँ का क्या भरोसा, चालीस साल की चामारिन खाँ रंडापा भोगने यहाँ बैठी रहेगी! किसी का घर चोखट करेगी ही । ऐसे मे यह भी गुस्सा में भाग - वाग गया तो।
इस ऊहापोह के बीच उन्हें मरते समय जगेसरा पर बकाया अनाज का सवाई ड़ेढ़ी की बैसाखी पर निरन्तर बड़ा होता ढेर और बदले मैं मिला मजबूत और टिकाऊ हलवाहा गायब होता दिखने लगता है…वे क्षण भर में संभल गए। बनावटी प्रेम से बोले,"देख बेटा, गुड़ की थोड़ाई पर न जा। ईसकी मिठास का ख्याल कर। ऐसी चीजें कोई भर पेट खाई जाती हैं।"
रमेसरा खून का घूँट पीकर रह गया। दूसरी बेला में वह हल लेकर खेत पर पहुँचा और हर एक कुण्ड में कई- कई मरतबा हल चला, खूब गहरी जुताई करने लगा। शाम को टहलते हुए ठाकुर साहब खेत में पहुँचे। मन में दबी गुस्से की आग शोला बनकर बनकर लपक उठी," अरे अब क्या तमाशा देख रहा है? अब तक सारा खेत जुत जाता, मगर तू सिर्फ पन्द्रह -बीस कुंड…"
" बाबू साहेब कुंड काहे गिनते हैं, इसकी गहराई देखें, गहराई।" रमेसरा ने निर्भीक होकर उनकी आँखो में झाँकते हुए जवाब दिया था… और रघुराज सिंह एकदम सन्न रह गए। जमाने की हवा एक बार फिर उन्हें आंधी मे परिवर्तित होती दीख रही थी ।

1 comment:

सतीश पंचम said...

अच्छी रोचक पोस्ट। जमाना वाकई बदल रहा है, एक बार एक कपडा मिल के मैनेजर से पूछा था कि ..मैने सुना तुम लोग मजदूरों को ढंग से काम के लिये मारते पीटते हो....तो उसने कहा- पहले होता था...अब नहीं....अब सब अखबार पढने लगे हैं।