Monday, July 7, 2008

सोशल इक्विटी




अमित कुमार
सेन्ट्रल बैंक की उस छोटी शाखा में जमा और भुगतान का एक ही काउन्टर था, उस पर दो रोज की बन्दी के बाद का दिन । टोकन लेने के बाद उन दोनों को लगा कि कम से कम घंटे भर बाद की नौबत आयेगी । दोनों नव युवा थे । आधुनिक तौर - तरीकों से लबरेज । इंतजार करर्ने की प्रवृति उनकी पिछ्ली पीढ़ी से ही खत्म होने लगी थी । कोई और काम निपटा आयें , ऐसा निर्ण्य लिया उन दोनो ने । डेढ़ घटे बाद जब वे लौट कर आये तो भुगतान लेने वाले सभी वही चहरे थे । काउंटर के करीब आकर कैशियर की और झाँकने का प्रयास करने लगे । "बहुत धीमे काम कर रहा है यह कैशियर ।" किसी ने कहा । "तीन बार तो में खुद ही टोक चुका हुँ ।" कहने वाला सचमुच बड़ी मशक्कत किए हुए लगता था । पतली काया माथे पर सिलवटों की चार धारियाँ और अधपके छोटे बाल वाले कैशियर साहब इन फिकरों को अनसुना करते हुये कच्छ्प गति से काम जारी रखे हुये थे, इस बात की परवाह किए बिना कि भृकुटि उनके काम करने की गति से तनी जा रही है । "कोटे से आया लगता है ।" मन्द स्वर में पीछे से शब्द उडेले गये । "किसने कही कोटे की बात ,"कैशियर साहब उठ खड़े हुये । भीड़ एक - दूसरे का मुहँ ताक फुसफुसाने लगी । वे अपना जालीदार दरवाजा बंद कर बाहर आ गये , तमतमाता हुआ चेहरा लिए , " किसने कही कोटे की बात ?" अन्य कर्मी भी उठ खड़े हुए "क्या हुआ?" "अरे सालों ने हद कर दी , मुझे कोटे वाला बना दिया ।" वे अपने साथी कर्मचारियों से मुखातिब थे । "जाने दीजिए मिश्रा जी," साथी कर्मचारियों ने समझाया । भीड़ की तरफ से भी अनुरोध हुआ। बड़बड़ाते हुए कैशियर साहब अपनी कुर्सी पर बैठकर काम करने लगे। पर अब भीड़ में बैचेनी नहीं थी। न जाने कैशियर साहब जल्दी काम करने लगे थे कि भीड़ को अब जल्दी नहीं थी ।

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